Sunday, August 9, 2009

गंगा जी


मुझ से मुझ को आज बचा लो गंगा जी
मेरे सब ये पाप सम्भालो गंगा जी

तुझ में आकर तेरा ही सब रूप धारूँगा
इस दूरी को ज़रा हटा लो गंगा जी

आग चिता की फिर न जला पाए मुझको
जल से अपने मुझे जला लो गंगा जी

परबत सागर चढ़ती उतरती रहती हो
मुझको अपने गले लगा लो गंगा जी

अपने सर माथे पर तुमको रख लूँगा
मुझको शंकर अगर बना लो गंगा जी

हर पापी को तुमने ही तो लहर किया है
अब तो मुझसे हाथ मिला लो गंगा जी

शीतल करना शीतल रहना आदत है
चाहे तुम दिन रात उबालो गंगा जी

हाथ जोड़ के मरने वाला माँग रहा है
घर में कुछ दिन और सम्भालो गंगा जी

खारे आँसू मन को खारा कर जाते हैं
अब तो आँखों में जल डालो गंगा जी

मैं चरणामृत सा सांझ सवेरे पीता हूँ
तुम मुझको परसाद बना लो गंगा जी

आज नही मैं द्वार तुम्हारे कल आऊंगा
मेरी खातिर प्यार बचा लो गंगा जी

कसम तुम्हारी खा के भी तो झूठ कहा है
अब तुम मेरी कसमें खा लो गंगा जी

उस बच्चे के माँ बापू हैं चाँद सिधारे
उस बच्चे को आप ही पालो गंगा जी

लहू की रंगत मेरी बातों में दिखती है
अपनी ही कोई कथा निकालो गंगा जी

बेचने वाले पानी को भी बेच रहे हैं
अपने इस जल को कहीं छिपा लो गंगा जी

तुम जो लिख दो कभी कहीं मैं वो बोलूँगा
मासूम सी इक ग़ज़ल बना लो गंगा जी

3 comments:

शशि "सागर" said...

koi shabd hee nahee hai is rachna kee tareef k liye..
aur mera dawa hai har koi aisa nahee likh sakta hai......
jis ehsas ho aapne shabdon me piroya hai,....kya kahun
aap kitne khushnaseeb hain aisa mahsus kiye.
aaj doobara padha..aanand aur shanti ki anubhuti hui

kirti said...

sir behad hi bhawuk aur bhtarin rachna

masoomshayer said...

shukriya shashi kirti