दीवारों में इक दर भी हो
चार-दीवारी अब घर भी हो
तुम को शंकर माना क्यों कि
तुम थोड़े से पत्थर भी हो
अंदर अंदर भीगे बरसों
बारिश अब के बाहर भी हो
दिल को हीरा माना तुम ने
क्या जाने ये पत्थर भी हो
दुनिया पर है जादू मेरा
मन ये चाहे तुम पर भी हो
शेर समझ के इस को पढ़ते
क्या जाने ये मंतर भी हो
मुझ में तुम, पर खोज रहा हूँ
शायद मुझ से बाहर भी हो
इस में ही अब वक़्त गुज़रता
अब दफ़्तर में इक घर भी हो
लब पे जो था ग़ज़लों में है
क्या जाने कुछ अंदर भी हो
दुनिया में भी जा कर देखें
कोई तुम सा सुंदर भी हो
दुनिया से मासूम निभाते
कुछ कुछ तो तुम शायर भी हो
चार-दीवारी अब घर भी हो
तुम को शंकर माना क्यों कि
तुम थोड़े से पत्थर भी हो
अंदर अंदर भीगे बरसों
बारिश अब के बाहर भी हो
दिल को हीरा माना तुम ने
क्या जाने ये पत्थर भी हो
दुनिया पर है जादू मेरा
मन ये चाहे तुम पर भी हो
शेर समझ के इस को पढ़ते
क्या जाने ये मंतर भी हो
मुझ में तुम, पर खोज रहा हूँ
शायद मुझ से बाहर भी हो
इस में ही अब वक़्त गुज़रता
अब दफ़्तर में इक घर भी हो
लब पे जो था ग़ज़लों में है
क्या जाने कुछ अंदर भी हो
दुनिया में भी जा कर देखें
कोई तुम सा सुंदर भी हो
दुनिया से मासूम निभाते
कुछ कुछ तो तुम शायर भी हो
2 comments:
"अंदर अंदर भीगे बरसों
बारिश अब के बाहर भी हो"
बहुत सुंदर अनिल जी!
sushila jee shukriya
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